स्वाधीनता और स्वतंत्रता में बहुत सूक्ष्म अंतर है। इसी अंतर को नहीं समझने के कारण भारत आजादी के बाद भी भारत नहीं बन सका बल्कि इंडिया बनकर रह गया। समाजवादी नामधारी राजनीतिक दलों ने पूर्व में इंडिया और भारत के अंतर से लोगों को अगाह कराने का प्रयास किया लेकिन सत्तालोलुपता के कारण आज के समाजवादियों ने अपने पुरखों की कथनी को तिलांजलि दे दी। इस गंभीर रोग का इलाज लोक के पास है। इसके लिए लोकमंथन आवश्यक है।
ऐसे तैयार हुईं मानसिक गुलामी की बेड़ियां
स्वतंत्र भारत के प्रारंभिक सरकारों ने मानसिक गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने की प्रक्रिया को थपकी देकर सुला दिया।
उपनिवेशवादी युग में अंग्रेजी शासन ने षड्यंत्र पूर्वक भारत के लोगों को मानसिक तौर पर गुलाम बनाने का सफल यत्न किया। आत्महीनता, भयभीत रहना और स्वयं को तुच्छ दृष्टि से देखने की प्रवृत्ति के बीज बो-कर अंग्रेजों ने हमारी सांस्कृतिक एकात्मता की चेतना को नष्ट करने का कुचक्र रचा। उन्होंने एक प्राकृतिक-सांस्कृतिक राष्ट्र को कृत्रिम देश बनाने की कोशिश की और इसके लिए हर क्षेत्र में आत्महीनता का योजनाबद्ध संचार किया। किन्तु यह एक प्रेरणादायी सत्य है कि उस परानुकरण के तमस में भी देशवासियों को राष्ट्रबोध, आत्मविश्वास, स्वाभिमान से प्रेरित होकर अपने स्वधर्म को समझाने का कार्य अनेक विभूतियों ने किया।
आजादी के बाद भी नहीं पा सके स्व का तंत्र
दुर्भाग्य यह है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद औपनिवेशवादी प्रवृत्ति से युक्त मानसिकता को राष्ट्रीय विचारों से प्रतिस्थापित करने के लिए कारगर प्रयास नहीं किये गये, जैसा कि मानसिक स्वतंत्रता के लिए स्वातंत्र्योत्तर भारत में अपेक्षित था। शताब्दियों की गुलामी से राजनीतिक स्वतंत्रता एक मूर्त प्रक्रिया है जबकि उसी गुलामी से मानसिक मुक्ति एक अमूर्त तत्व है। इस मानसिक मुक्ति की आवश्यकता भी उतनी ही होती है जितनी कि राजनीतिक स्वतंत्रता की। हम जानते हैं कि भारत पर बारम्बार आयात होने के बाद भी इसकी सांस्कृतिक चेतना में विद्यमान एकात्मता ने इस राष्ट्र को अक्षुण्ण बनाए रखा। लेकिन औपनिवेशिक काल में लगभग दो सौ वर्षों की गुलामी ने भारतीयों को भारत बोध अर्थात् राष्ट्र की भावना से ही किसी न किसी रूप में विरत कर दिया। भारत की बौद्धिक संस्थाएं, अकादमिक जगत तथा क्रियाशीलता के सभी क्षेत्र उन हाथों में सौंप दिये गये जो भारत की संस्कृति के विपरीत वर्ग-संघर्ष और परानुकरण के हिमायती रहे हैं।
लोक में राष्ट्र सर्वोपरि की देशज दृष्टि
ऐसे में सुखद बात यह है कि ज्ञात-अज्ञात कर्मशील लोगों ने भारत राष्ट्र की मूल अस्मिता के अनुरूप स्वयं को सक्रिय रखा। इस राष्ट्र के दूर-दराज में बसने वाले लोक ने स्वयं को इस तुच्छतापूर्ण व्यवहार और छद्म बुद्धिजीविता से न केवल स्वतंत्र रखा अपितु अपनी कर्मशीलता में राष्ट्र सर्वाेपरि की भावना लक्षित करके राष्ट्र की आत्मा को जाग्रत करते रहे। वे अपनी मूल राष्ट्रीय अस्मिता को सँजोकर जीवन के हर क्षेत्र में राष्ट्र के समग्र उन्नयन हेतु प्रयत्नशील रहे। उपनिवेशवाद की प्रवृत्तियों के विपरीत उन्होंने देशज दृष्टि एवं जीवन की स्थापना के लिए अपना हर सम्भव प्रयास किया है। एकात्मता के विविध स्वरूपों को दर्शाने वाली लोक कलाओं, परंपराओं और मान्यताओं को समानांतर अस्मिताओं के साथ समन्वय बनाए रखा।
लोकमंथन राष्ट्र पुनर्निर्माण की जरूरत
वस्तुतः हमारे समाज का चित्त मलिन कर उसमें से स्वत्व की अनुभूति को निकालने का क्रमबद्ध प्रयास औपनिवेशिक काल से लेकर अब तक जारी है। ऐसे में ‘लोकमंथन’, देश-काल-स्थिति, राष्ट्र सर्वाेपरि की भावना से सम्पन्न विमर्श की महत्ता को शब्दों में नहीं व्यक्त किया जा सकता। समाज जीवन के विविध क्षेत्रों में औपनिवेशिकता के कुप्रभाव का विश्लेषण इस मंथन में हुआ। लोक में व्याप्त राष्ट्र सर्वाेपरि की भावना का अनुशीलन करना, उसका दिग्दर्शन करना और उस पर मंथन करना, राष्ट्रीय पुनर्निर्माण की अनिवार्य प्रक्रिया है। अपनी मूल व्यापक पहचान की ओर बढ़ते हुए कला, साहित्य, संगीत, सिनेमा, राजनीति, मीडिया आदि क्षेत्रों को देशज परंपराओं से जोड़ने के लिए यह सशक्त माध्यम है।
भारत जैसे विशाल एवं प्राचीन राष्ट्र का बोध केवल भौगोलिक इकाई का बोध न होकर ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ है। इसके लिए भारत के अंदर प्रस्वर राष्ट्रत्व, कर्तव्य बोध, स्वप्रेरणा, अनुशासन, राष्ट्र सर्वाेपरि की धारणा स्पष्ट होनी चाहिए। अतः आवश्यक है कि सदी के साहित्यकार, चिन्तक, विचारक, आलोचक, पथ प्रदर्शक, समाज सुधारक, इतिहासकार, जागरूक पत्रकार, संस्कृति व्याख्याता और संरक्षक, शिक्षाविद, भाषा संस्कारक, शैलीकार और संस्था निर्माता अपने- अपने स्तर से आगे आयें।
भारत माता की जगत प्रतिष्ठा का आधार
‘लोकमंथन’ का यह विमर्श, अस्मिता बोध के साथ पुनः एक बृहत्तर राष्ट्रबोध में परिवर्तित होकर उठ खड़ा हो और भारतीय मानस में अंतर्व्याप्त औपनिवेशिक मानसिकता को उखाड़ फेंके और अपनी ज्ञान परम्परा से सम्पन्न होकर विश्व के कल्याण की कामना के साथ भारत माता की जगत प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित कर सके। काल हमारी प्रतीक्षा कर रहा है।
इस विचार संग्रह की सम्पूर्ण सामग्री चार भागों में अलग-अलग शीर्षकों में विभक्त है, जिसमें राष्ट्र सर्वाेपरि की भावना वाले कर्मशीलों के विचार संकलित हैं। विश्वास है कि यह प्रयास राष्ट्र अपने सत्व एवं स्वत्व को समझकर लोक कल्याण के अपनी नियति के मार्ग पर सार्थकता से आगे बढ़ने में अपना योगदान देगा।