पश्चिम के प्रभाव के कारण भारत की प्रकृति, संस्कृति व ज्ञान परंपरा को अभिव्यक्त करने वाले शब्दों के संस्कार बदले हैं। उनके अर्थ संकुचित या विकृत भी हुए हैं। इस में एक शब्द प्रचार भी है। संस्कृत के चर धातु के साथ ’प्र’ प्रत्यय की संधि से प्रचार शब्द की व्युत्पति हुई है। चर धातु से चलना क्रिया का भाव बोध होता है लेकिन प्र प्रत्यय की संधि से प्रकृष्टता के साथ चलना या चलाना का अर्थ बनता है। वहीं पश्चिम के देशों में प्रचलित प्रोपेगेंडा शब्द को ही प्रचार शब्द का समानार्थी मान लिया गया। इस अर्थ में यदि हम प्रचार शब्द को लेते हैं तो यह एजेंडा सेट करने के लिए एक टूल मात्र है। इस प्रकार पश्चिम के प्रभाव के कारण व्यापक अर्थ व संदर्भ वाले भारतीय शब्द ‘प्रचार’ के संस्कार ही बदल गए।
प्रचार शब्द की संस्कार यात्रा
प्रचार शब्द की संस्कार यात्रा का संक्षिप्त विवरण ब्रह्मांड पुराण के द्वितीय खंड में उपलब्ध है। एक समय राजा सागर जब अनिर्णय की स्थिति में होते हैं, तब राजा को उस स्थिति से त्राण दिलाने के लिए ऋषियों की सभा में देवर्षि नारद की चर्चा होती है। उसी चर्चा के क्रम में एक सूत्र आता है-प्रचारः नारदवृति। मोटे तौर पर इसका अर्थ यह हुआ कि प्रचार नारद की सहज प्रवृति है। वहीं दूसरे स्थान पर प्रचारः नारदस्यवृति भी आता है। इसका अर्थ यह हुआ कि प्रचार नारद की वृति है। अर्थात प्रचार को यदि समझना है तो नारद के जीवनचरित को समझना होगा।
नारद वृति और कर्म का रहस्य
नारद पुराण में सनत कुमार की जिज्ञासा शांत करने के लिए नारदजी अपनी वृति और कर्म का रहस्य बताते हैं। वे कहते हैं कि मेरा प्रधान कर्म कथा है। मेरी कथा की आत्मा तत्वबोध है जो पुराणों में सहज और सरल रीति से उपलब्ध है। जिज्ञासुओं को उर्ध्वचेता बनाने के लिए एवं संसारी जनों को त्रितापों से मुक्ति दिलाने के लिए सत्य संकल्प से मैं जिस कथा का प्रवचन करता हूं वह पुराण ही है, जिसके पांच लक्षण हैं।
सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च।
वंशानुचरितं चौव पुराणं पञ्चलक्षणम् ॥
इस दृष्टि से प्रचार कथा का पर्याय है। कथा के लिए प्रमुख तत्व सत्य है। सत्य के आलोक में सृष्टि की उत्पति से लेकर सृष्टि में होने वाली प्रमुख घटनाओं का प्रसंग विवेचन ही नारद की वृति थी। इस प्रकार प्रचार का व्यावहारिक प्रयोग कथा ही है। इस अर्थ में कथा और प्रचार ज्ञान का प्रसार है। कथा या प्रचार की आत्मा सत्य है। बाद के काल में वेद व उपनिषद की कथाओं का प्रचलन शुरु हुआ जो वेद के तत्व से साक्षात्कार कराने वाला उपक्रम है। इसमें ऋषियों व उनके शिष्यों के जीवन विवरण के साथ अनुभवजन्य ज्ञान यानी अध्यात्म की गंगा प्रवाहित होती है।
नारद के इष्ट वामन
नारद के इष्ट वामन देव है, जिनकी स्तुति के माध्यम से हम प्रचार की प्रकृति, प्रवृति व स्वरूप को समझ सकते हैं।
चौतन्यम् सुमनं मनं मन मनं मानं मनं वामनं
विश्वासार सरं सरसरं सारं सरं वासरं
मायाजाल धवं धव धव धवं धावं धवं माधवं
बैकुंठाधिपते भवं भव भव भवं भावं भवं शाम्भवं
प्रचार का प्रभाव दिव्यास्त्रों से गहरा
बहुत कम लोग जानते हैं कि भगवान विष्णु के प्रथम मनुज अवतार यानी वामनदेव नारद के इष्ट हैं। नारद भगवान वामन की स्तुति करते हुए कहते हैं कि मन को चौतन्यता प्रदान कर धर्म की स्थापना करने वाले वामनदेव आप हमारे इष्ट हैं क्योंकि आपने बिना अस्त्र-शस्त्र के देव संस्कृति की रक्षा की थी। आप माया के जाल को काटकर सभी प्राणियों को उसके मूल स्वरूप यानी अमृत रूप में स्थित करते हैं। आपने पुण्य के प्रभाव के कारण उत्पन्न मान-अभिमान के प्रभाव से पूर्णतः मुक्त करते हुए विश्व में धर्म की पुनर्स्थापना की है। यानी प्रचार का प्रभाव दिव्यास्त्रों से भी अधिक गहरा होता है। शायद इसीलिए कहा गया है कि जब तोप काम नहीं आए तब अखबार निकालो।
प्रचार का मूल सत्य
इस प्रकार नारद वृति का उद्देश्य माया के एकांगी प्रभाव के कारण उत्पन्न जड़ बु़िद्ध रूपी भ्रम को सत्य के प्रकाश से दूर करना। प्रत्येक पदार्थ, तत्व व सत्ता के मूल स्वरूप और व्यवहार का दर्शन व ज्ञान सत्य कहा गया है। इसका संक्रमण का कार्य प्रचार या कथा है। उपनिषद में इस सत्य तत्व की व्याख्या मिलती है। आचार्य चाणक्य की नीति में सत्य का प्रमुख स्थान है। गीता रहस्य पूर्ण करने के बाद लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने भारत के प्रमुख संतों व राजनेताओं को एक पत्र लिखा था, जिसका प्रारंभ उन्होंने सत्य के महत्व को स्थापित करने वाले श्लोक से किया था।
सत्येन धारयते पृथ्वी, सत्येन तपते रविः
सत्येन वायवोवान्ति सर्वम् सत्ये प्रतिष्ठितः
लोकमान्य तिलक के बाद महात्मा गांधी ने भी जब बिहार के चम्पारण से अपना आंदोलन शुरू किया था तो उसमें सत्य और अहिंसा मुख्य आधार था। चम्पारण के निलहा किसानों व गांवों में निवास करने वाले गरीब लोगों की स्थिति जानने के लिए उन्होंने सैकड़ों कार्यकर्ताओं के माध्यम से सर्वे कराया था। उस कार्य में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, ब्रजकिशोर प्रसाद व गोरख बाबू जैसे विधिवेता भी शामिल थे। सर्वे के माध्यम से जो सूचनाएं एकत्रित की गयी थीं, वह उस काल में वहां के लोगों की सही स्थिति का विस्तृत विवरण था। वहां के लोगों की प्रामाणिक स्थिति से जब पूरा विश्व अवगत हुआ, तब स्वयं को सभ्य बताने वाले अंग्रेजों की सरकार के विकृत चेहरे पर से पर्दा उठा था।
इतिहास का बोध करने वाले पुराणों को नकारा
भारत में लोकतंत्र है। लोकतंत्र यानी लोक की सत्ता। लोक की सत्ता चुनावों के माध्यम से स्थापित होती है। चुनाव में लोकमत को विकृत करने के लिए झूठी बातों को आधार बनाया जाता है। आजकल जिसे हम प्रचार कहते हैं वह वास्तव में प्रोपेगेंडा है जो किसी टूल कीट के सहारे समाज व देश में भ्रामक वातावरण बनाकर अपने लोगों के पक्ष में वोटों की गोलबंदी कराता है। झूठ के सहारे इसमें विकृत चेहरों को चमकाने का कार्य किया जाता है। यानी मायाजाल के माध्यम से लोकमत को भ्रमित करना इनका प्रमुख कार्य है, जबकि भारत का प्रचार मायाजाल को ध्वस्त करते हुए समाज व राष्ट्र में सत्य को स्थापित करने का शुभकर्म है।
जिस प्रकार धर्म का अंग्रेजी अनुवाद रिलिजन नहीं होता, उसी प्रकार प्रचार का अंग्रेजी भाषा में कोई समानार्थक शब्द नहीं है। धर्म के दस लक्षण हैं उसमें सत्य प्रमुख है। धर्म की ही तरह प्रचार के पांच लक्ष्ण हैं, जिनमें सत्य प्रधान लक्षण है। युरंडपंथियों ने भारत के सम्पूर्ण इतिहास का बोध कराने वाले पुराणों को काल्पनिक कथाओं का ग्रंथ बता दिया। भारत के इतिहास में लोकमत जागरण व लोकमत परिष्कार का कार्य करने वाले आदि पुरुष नारद हैं। लेकिन, भारत की धरती पर ही नारद के अस्तित्व को नकारने के प्रयास चलते रहे हैं। लेकिन, भारतीय ग्रंथों में उपलब्ध प्रामाणिक तथ्य यह बता रहे हैं कि नारद आज भी पत्रकारिता के लिए एक आदर्श प्रतिमान हैं।